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साखी दोहे-भावार्थ

1. साखी दोहे - कबीर दास 

कवि परिचय :

कबीर (लगभग 1399-1495 .) अपने समय के उच्चकोटि के संत और क्रांतिकारी समाज सुधारक थे । कबीर दास निरक्षर थे। उनके गुरु रामानंद थे। कबीरदास की भाषा साधुक्कड़ी थी । वे सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक बाह्य आडंबरो के प्रबल विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त किसी भी संप्रदाय को खंडन करने में तनिक भी  हिचकिचाते नहीं थे ।


अ) संदर्भ सहित  व्याख्या 

1. साधु ऐसा चाहिए ....... देर उड़ाय ।। 

a. कवि परिचय : हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में कबीर दास जी का नाम विख्यात हैं। इनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी हुआ । और मृत्यु सन् 1511 ई में मगहर में हुआ । कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। नीरू-  नीमा नामक जुलाहा दंपति ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु रामानंद थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संताने थी  कमाल और कमाली।इनके शिष्य के द्वारा इनकी रचनाओं का संग्रह "बीजक " में किया गया । 

b. संदर्भ : कबीरदास साधु का लक्षण के बारे में बताते हुए यह दोहा कहते हैं। उनका कहना  है कि साधु सूप की तरह रहना चाहिए। उसी संदर्भ में वे यह दोहा बताते हैं। 

c.भावार्थ : कबीरदास कहते हैं कि साधु  को सूप की तरह रहना चाहिए। जैसे सूप के अंदर भारी चीज़  रह जाती है। और हल्की चीज़ उड़ जाती  है । इसी तरह साधु अच्छे विषयों को ग्रहण करके व्यर्थ विषयों को तिरस्कार करना चाहिए। 
d.विशेषताएँ :     

  • कबीरदास हिंदी साहित्य के उच्च कोटी के संत कवि माने जाते हैं।
  • प्रस्तुत दोहे में साधु का लक्षण के बारे में अत्युत्तम ढंग में वर्णन किया गया है । 
  • उनकी भाषा जन साधारण की "साधुक्कड़ी" है। 
  • उनका वर्णन अद्भुत हैं। भाव सरल एवं गंभीर हैं । 


2.जाति न पूछो .......राहनदो म्यान ।। 

 कवि परिचय : हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में कबीर दास जी का नाम विख्यात हैं। इनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी हुआ । और मृत्यु सन् 1511 ई में मगहर में हुआ । कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। नीरू-  नीमा नामक जुलाहा दंपति ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु रामानंद थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संताने थी  कमाल और कमाली।इनके शिष्य के द्वारा इनकी रचनाओं का संग्रह "बीजक " में किया गया । 
b. संदर्भ : कबीर दास साधु के साथ व्यवहार के बारे में बताते हुए यह दोहा कहते हैं। उनका कहन है कि साधु की जाती के बारे में नहीं पूछना चाहिए। उसी संदर्भ में वे यह दोहा बताते हैं। 

c.भावार्थ :  कबीर दास कहते हैं कि साधु की जाती के बारे में नहीं पूछना चाहिए। उनसे सिर्फ़  ज्ञान ही प्राप्त करना चाहिए। जैसे तलवार को खरीदते समय सिर्फ़ उसी का मोल-भाव करते हैं, मगर म्यान के बारे में पूछते नहीं। 

d.विशेषताएँ : 

  • कबीरदास हिंदी साहित्य के उच्च कोटी के संत कवि माने जाते हैं।
  • प्रस्तुत दोहे में साधु का लक्षण के बारे में अत्युत्तम ढंग में वर्णन किया गया है । 
  • उनकी भाषा जन साधारण की "साधुक्कड़ी" है। 
  • उनका वर्णन अद्भुत हैं। भाव सरल एवं गंभीर हैं । 
3.पाहन पूजे हरी मिले तो मैं ......

 कवि परिचय : हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में कबीर दास जी का नाम विख्यात हैं। इनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी हुआ । और मृत्यु सन् 1511 ई में मगहर में हुआ । कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। नीरू-  नीमा नामक जुलाहा दंपति ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु रामानंद थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संताने थी  कमाल और कमाली।इनके शिष्य के द्वारा इनकी रचनाओं का संग्रह "बीजक " में किया गया । 
b. संदर्भ कबीरदास धार्मिक बाह्याड़म्बरों का खंडन करते हुए यह दोहा कहते हैं। अतः भगवान की उपासना करने के  संदर्भ में वे यह दोहा कहते हैं। 

c.भावार्थ  कबीरदास कहते हैं कि - भगवान का रूप मानकर किसी पत्थर की उपासना करने से पहाड़ की उपासना करना बेहतर है। इससे भी उसी पहाड़ से बनी चक्की बहुत अच्छी है, जिससे लोग आटा बनाकर कहते हैं। 

d.विशेषताएँ : 

  • कबीरदास हिंदी साहित्य के उच्च कोटी के संत कवि माने जाते हैं।
  • प्रस्तुत दोहे में साधु का लक्षण के बारे में अत्युत्तम ढंग में वर्णन किया गया है । 
  • उनकी भाषा जन साधारण की "साधुक्कड़ी" है। 
  • उनका वर्णन अद्भुत हैं। भाव सरल एवं गंभीर हैं । 

 

4. निंदक निपरे रखिए .....करै सुभाय ।। 

 कवि परिचय : हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में कबीर दास जी का नाम विख्यात हैं। इनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी हुआ । और मृत्यु सन् 1511 ई में मगहर में हुआ । कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। नीरू-  नीमा नामक जुलाहा दंपति ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु रामानंद थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संताने थी  कमाल और कमाली। इनके शिष्य के द्वारा इनकी रचनाओं का संग्रह "बीजक " में किया गया । 
b. संदर्भ :कबीरदास निंदा  करने वाले के बारे में बताते हुए यह दोहा कहते हैं। अतः निदक को अपने पास ही रखना चाहिए । उसी संदर्भ में वे यह दोहा कहते हैं। 

c.भावार्थ :   कबीरदास कहते हैं कि - निंदा करने वाले को हमेशा आपने करीब ही कुटिया बनाकर रखना चाहिए। क्योंकि जब तक वह निंदा करता जाएगा , हमें अपने आप को सुधारना  चाहिए। ताकी हम अपना सुधार कर सकें ।  और यह काम मुफ़्त में भी हो जाएगा । 

d.विशेषताएँ : 

  • कबीरदास हिंदी साहित्य के उच्च कोटी के संत कवि माने जाते हैं।
  • प्रस्तुत दोहे में साधु का लक्षण के बारे में अत्युत्तम ढंग में वर्णन किया गया है । 
  • उनकी भाषा जन साधारण की "साधुक्कड़ी" है। 
  • उनका वर्णन अद्भुत हैं। भाव सरल एवं गंभीर हैं । 

5. जब मैं था तब ....   न समाहिं ।।        

 कवि परिचय : हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में कबीर दास जी का नाम विख्यात हैं। इनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी हुआ । और मृत्यु सन् 1511 ई में मगहर में हुआ । कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। नीरू-  नीमा नामक जुलाहा दंपति ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर के गुरु रामानंद थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनकी दो संताने थी  कमाल और कमाली।इनके शिष्य के द्वारा इनकी रचनाओं का संग्रह "बीजक " में किया गया । 
b. संदर्भ :कबीरदास गर्व / अहंकार के बारे में  यह दोहा कहते हैं। अतः मनुष्य के मन में गर्व होने पर भगवान के लिए स्थान नहीं होगा । उसी  संदर्भ में वे यह दोहा कहते हैं

c.भावार्थ :   कRबीरदास कहते हैं कि - जब तक मन में "मैं " (अहंकार) होगा तब तक गुरु(ईश्वर) के लिए स्थान नहीं होगा । जब मन में  गुरु(ईश्वर) के लिए स्थान  होगा,  तब "मैं " (अहंकार) के लिए कोई स्थान नहीं होगा । क्योंकि मानव का मन अत्यंत संकीर्ण होता है, इसमें दो विषयों के लिए जगाह नहीं है। 

d.विशेषताएँ : 

  • कबीरदास हिंदी साहित्य के उच्च कोटी के संत कवि माने जाते हैं।
  • प्रस्तुत दोहे में साधु का लक्षण के बारे में अत्युत्तम ढंग में वर्णन किया गया है । 
  • उनकी भाषा जन साधारण की "साधुक्कड़ी" है। 
  • उनका वर्णन अद्भुत हैं। भाव सरल एवं गंभीर हैं । 

आ ) प्रश्नोत्तर :-

1 ) कबीरदास जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए ?

. कबीर दास जी का जन्म सन् 1399 में काशी में हुआ था। वे जन्मतह हिंदू थे। और इनका पालन-पोषण मुसलमान परिवार में हुआ। इनके गुरु रामानंद थे, उनकी पत्नी का नाम लोई और इनके दो संतान - कमल, कमाली है। इनका मृत्यु मगहर में सन् 1495 में हुई।         

कबीरदास अक्खड़ प्रवृत्ति के साधु थे। वे राजा-महाराजा, विद्वानों के सामने अपने को कम नहीं समझते थे। लेकिन किसी फ़कीर के आगे अपने आप को बहुत कम समझते थे। वे एक सच्चे समाज सुधारक थे। उनका विश्वास साकार रूपी भगवान में ना होकर निराकारी भगवान में था। इसलिए समाज में प्रचलित धार्मिक आडंबरों का खंडन करते थे। उनके समय में समाज में फैले हुए धार्मिक एवं सामाजिक असमानताओं को दूर करने का प्रयास करते थे। वे अनपढ़ थे । किसी भी आश्रम में उन्हें उन्होंने शिक्षा प्राप्त नहीं की लेकिन संसार रुपी जीवन के विश्वविद्यालय से उन्होंने अनुभव को प्राप्त किया है । तथा साधु जनों के संगति और देशाटन से वे पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किए हैं।  इनके दोहे "बीजक" नामक ग्रंथ में संग्रहित हैं जिसके तीन भाग हैं - साखी, शब्द, रमैणी। इनकी भाषा साधुक्कड़ी भाषा है। इनके दोहों में अनुभूति की सच्चाई और भाव - प्रवणता मिलती हैं लेकिन कला की कारीगरी नहीं मिलती।

2) मूर्तिपूजा के प्रति कबीरदास का विचार क्या था ? 

: कबीरदास हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के निर्गुण भक्तिधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा में के प्रमुख कवि थे। इनकी उपासना निराकारी भगवान में थी। वे जन्मतः हिंदू, एवं पालन-पोषण से मुसलमान थे। वे किसी भी धर्म के मुढविश्वासों को तथा धार्मिक अडंबरों को खंडन करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं करते थे। उनका विचार है कि - धार्मिक अडंबरों से या अंधविश्वास से भगवान की उपासना नहीं हो सकती है। वे निराकार रूप में भगवान में विश्वास करते थे। जिस भगवान का रंग-रूप तथा आकार कुछ भी नहीं है। इसीलिए मूर्ति पूजा को वे खंडन करते हैं। लोग पत्थर की पूजा करते हैं,जिसे वे भगवान समझते हैं। तो कबीरदास पहाड़ की पूजा करेंगे जिससे पत्थर से भी बड़ा भगवान मिल सके। लेकिन इससे भी चक्की अच्छी है, जो उसी पत्थर से बनी है। लोग इससे आटा पीस कर खाते हैं।    

कबीरदास इसी तरह बाह्य आडंबरों के प्रति व्यंग्य रूप से खंडन करते हैं। उनका मानना है कि भगवान को आकार से नहीं, आडंबर से नहीं, बल्कि मन से एकाग्रता के साथ एवं श्रद्धा के साथ उपासना करना चाहिए।

3) कबीर दास  के रहस्यवाद पर एक टिप्पणी लिखिए?

: कबीर दास भक्तिकाल के प्रमुख कवि थे। वे एक संत, साधु के रूप में निराकर भगवान के उपासना की पद्धति को श्रद्धा दी है। इनके अनुसार भगवान निराकारी होते हैं। सर्वव्यापी होता है। जिसको ज्ञान के द्वारा ही ढूंढा जा सकता है।वे अन्य किसी भी पद्धति में, उपासना में, पूजा में विश्वास नहीं रखते है। अज्ञान, निराकारी, सर्वव्यापी भगवान की खोज करना और उसे पहचानने को 'रहस्यवाद' कहते हैं। कबीरदास एक श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि थे। फिर भी कभी-कभी ईश्वर से बढ़कर गुरु को मान्यता देते हैं क्योंकि ईश्वर को पहचानने का मार्ग गुरु से ही प्राप्त होता है।

एक दोहे में वे कहते हैं की - कस्तूरी मृग सुगंध को ढूंढते हुए जंगल और मैदानों में भटकता रहता है। उसे पता नहीं चलता कि वह सुगंध उसी के नाभि से निकलता है। इसी तरह लोग भगवान को ढूंढते हुए कई तरह के आचरण एवं रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं चलता कि भगवान उन्हीं की मन में अंतर्निहित है।

कबीर दास गर्व को दूर करने की बात कहते हैं क्योंकि-मन में अहंकार होगा तो गुरु (भगवान) को स्थान नहीं मिलेगा। अहंकार छूटने पर ही गुरु की प्राप्ति (भगवान) हो सकती है,इसी तरह जीवन के बारे में कहते हैं कि

यह पानी के बुदबुदा के समान है, अशाश्वत है। यह कब समाप्त हो जाएगा इसकी जानकारी नहीं है। इसीलिए व्यर्थ विषयों को छोड़कर जीवन को मूल्यवान बनाना चाहिए।

         

                                     




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