हिंदी साहित्य का इतिहास - वर्गीकारण
हिंदी साहित्य का इतिहास - वर्गीकारण
परमतत्व को कुछ भक्ति कवि निर्गुण निराकारी और निर्जन मानते हैं । वे परमतत्व
के अनेक आकार और अनेक गुणों में विश्वास रखते हैं । परमतत्व की इसस भिन्नता के आधार
पर भक्तिकाल के साहित्य के दो विभाग किए गए हैं - 1. निर्गुण शाखा 2. सगुण शाखा । जो
भक्ति कवि परब्रह्म को साकार माननेवाले भक्त कवि सगुण भक्ति कवि है ।
परब्रह्म को पाने के विविध मार्ग बताए गए हैं । जो कवि केवल ज्ञान के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करना चाहते हैं, वे ज्ञानश्रयी शाखा के हैं। कबीर , रैदास आदि इस शाखा के कवि हैं। जायसी ,मंजन,कुतुबन आदि प्रेमश्रयी शाखा के कवि हैं।
परब्रह्म को सगुण ब्रह्म माननेवाले कुछ कवियों ने राम को और कुछ कवियों ने कृष्ण को परमात्मा माना हैं । राम को परब्रह्म मानने वाले भक्त कवि राम भक्ति शाखा के कवि हैं। तुलसीदास राम
भक्ति के प्रतिनिधि कवि हैं। कृष्ण की परब्रह्म माननेवाले कृष्ण भक्ति शाखा के कवि हैं
। सूरदास कृष्ण भक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं।
A) ज्ञानाश्रयी शाखा - कबीरदास
।. कबीर का परिचय:
कबीरदास ज्ञानमार्गी
शाखा के कवि थे। व संत कवि थे। वे पहले भक्त थे, बाद में कवि। वे निर्गुण, निराकार,
निरंजन परब्रह्म की उपासना करनेवाले थे।
कबीरदास के जन्म-स्थान के विषय में तीन मत मिलते हैं -
1. उन्होंने काशी में जन्म लिया था।
2. वे मगहर में प्रकट हुए थे।
3. वे अजम गढ़ में स्थित बेतहरा गाँव के निकासी थे। कबीर ने स्वयं अपने को जुलाहा होने की बात कही है तू ब्राह्मण, मैं काशी का जुलाहा, बुझह मोर गियाना । कबीर का विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ था। उनकी दो संतानें थी - कमाल और कमाली।
II. शिक्षा:
कबीरदास ने रामानंद से दीक्षा ली । उन्हीं से उन्हे प्रेम भक्ति और राम - नाम के अमर - दान मिले यहीं। जहां भी रामानंद का प्रसंग आया है, वहाँ वे अत्यंत विनम्र और श्रद्धावान दिखाई पड़ते है। उन्होंने फकीर दे भी उपदेश ग्रहण किए।
III. लोकानुभव:
कबीर ने कहा है - “ मसि कागद छूओ नहीं ” इससे स्पष्ट होता है ली वे पेढ़ - लिखे नहीं थे। उनके घर नित्य साधु आया करते थे। वे समझते थे की जिस दिन उनके घर कोई साधु नहीं आया, वह दिन व्यर्थ गया है। वे साधुओं तथा शिष्यों के साथ तीर्याटन करते थे। साधु - सांगत्य तथा तीर्याटन से प्राप्त अनुभव के आधार पर वे लोगों को उपदेश देते थे। उनके शिष्यों ने अनेक उपदेशों का संकलन “बीजक” नामक ग्रंथ में किए है।
IV. रचनाएँ:
बीजक तीन भागों में विभकत है - साखी, सबद और रमैनी। “साखी” में दोहे और कही - कही सोरठे भी हैं इनमें अनेक उपदेशप्रद बाते कहीं गई है। साथ ही इनमें कबीर ने छापा - तिलक लगाने वालों इत्यादि की भर- पेट निंदा की थी। “सबद” में बाह्याडम्बरों के प्रति कबीर का तीव्र आक्रोश, हिंदुओं और मुसलमानों को फटकारना और रहस्यात्मक शैली में योग का वर्णन इत्यादि मिलती है। “रमैनी” स्वयं कबीर की रामायण है। भक्ति में कबीर तन्मय होकर जो कुछ कहना चाहते थे उसे उन्होंने आत्म - विभोर होकर रमैनी में ही गया है। उसमें उनके सिद्धांतों का प्रविपादन अनेक राग - रागिनियों में किया गया है। कबीर के साखी दोहे और सोरठे जैसे छोटे छंढ़ लिखे हैं। उनके पद अनेक राग - रागिनियों में किया गया है। उन्होंने अपने सिद्धांतों का निरूपण विशिष्ट रूप से रमैनी में किया है। उनकी कविता में अनुप्रास, यमक, दुष्टान्त , उदाहरण, रुपक आदि अलंकार प्रयुक्त है। भाव, रस, प्रेम, भक्ति आदि को प्रधानता के कारण कबीर हिन्दी के श्रेष्टतम कवियों की पंक्ति में आते हैं।
V. कबीरदस की भक्ति भावना:
कबीर का राम निरंजन
है। उसका न तो रूप है और न रेखा। वह न तो समुद्र है और न पर्वत। वह संसार में दिखायी
पड़नेवाले सब पदार्थों से भिन्न है। वह पाप और पुण्य से परे, ज्ञान और ध्यान का अविषय
स्थूल और सूक्ष्म से विवर्जित, अनुपम और तीनों लोकों में विलक्षण परमतत्व है। कबीर
का पुत्र कमाल ने सगुण परपर अपनाई तो उन्होंने बड़ा दुख प्रकट करते हुए कहा है -
बूढ़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल । ।
विविध विषयों में कबीर का विचार -
I.गुरु के बारे में:
कबीर ने गुरु
को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उन्होंने कहा है की गुरु गोविंद से भी बड़े है। जो ईश्वर
का स्मरण करता है उसे संसार रूपी समुद्र को पार करने में कदाचित देरी हो सकता है, पर
जो गुरु का स्मरण करता है वह भवसागर से पार हो जाता है। उन्होंने गुरु को महिमा बताते
हुए लिखा है -
“गुरु पारस पत्थर के समान है, गुरु का स्पर्श चंदन की गंध की तरह शीतल तथा सुगंधित होता है, सतगुरु रूपी पारस जीव को स्वर्ग में जगह दिलाता है।”
II. स्मरण के बारे में:
कबीर कहते हैं की नाम से समान कोई साधन नहीं है। ईश्वर से नाम का थोड़ा - सा हमारे हृदय में संचार होने पर भी सारा शरीर स्वर्गमय हो जाता है। नाम - स्मरण का विधान बताते हुए वे कहते हैं - “ तू ज्ञान रूपी दीपक को जलाकर अपने हृदय रूपी आंतरिक भवना को प्रकाशित कर। वहाँ सहज समाधि लगाकर सटनामे का स्मरण कर। ”
III. भक्ति के बारे में:
कबीर का विचार है की दुनिया के साथ संबंध रखने पर भक्ति नहीं हो सकती - कामी, क्रोधी और लालसी से भक्ति नही की जा सकती। जाती, वर्ण और कुल के परे सोचनेवाला वीर ही भक्ति करने योग्य होता है। प्रेम न तो बगीचे में पैदा होता है एयर न बाजार में ही बिकट है। जो कोई उसे प्राप्त करना चाहता है, उसे सिर देना पड़ता है। प्रेम के लिए दूर की समस्या उत्पन्न नहीं होती।
IV. ईश्वरीय प्रेम:
कबीर ने ईश्वरीय
प्रेम को स्पष्ट करने के लिए दाम्पत्य प्रतीकों का सहारा लिया है। उन्होंने प्रेम का
संयोग और वियोग दोनों दशाओं का वर्णन किया है। वे एक दोहे में संयोग का वर्णन इस प्रकार
करते है आँखों की कोठरी बनाकर, पुतली रूपी पलंग को बिछाकर, पलकों का चिक डालकर पत्नी
प्रियतम को संतुष्ट करता है। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग का अधिक वर्णन किया है।
उहोने वक दोहे में लिखा है - “ हे ईश्वर ! जीवात्मा
बहुत दिनों से तुम्हारा आने के मार्ग को देख रही है। वह तुम्हारा नाम रट रही है, वह
तुम्हारे मिलने के लिए तरस रही है। उसके मन को ससराम नहीं है। ” ऐसे वर्णनों के आधार पर ही कबीरदास रहस्यवाद दार्शनिक
रहस्यवाद के नामे से प्रसिद्ध हुए।
V. समाज सुधारक के रूप में:
कबीर प्रगतिशील संत कवि है। उनकी कविता में समाज - सुधार की भावना मिलती है। वे व्यंग्य करने और चुटकी लेने में अव्दितीय थे। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सब उनके व्यंग्य से तिलमिल उठते थे। वे धार्मिक बाह्यदम्बरों का खंडन करते हैं। वे तिर्याटन की व्यर्थ मानते है। वे केश - खंडन, जीव - हिंसा, अंध - विश्वास आदि का डटकर खंडन करते हैं।
VI. कबीर की भाषा:
कबीर की भाषा
साधूकक्ड़ी या साधुओं की भाषा मानी जाती है। वह ब्रजभाषा, अवधि, राजस्थानी, अरबी, फारसी,
खड़ीबोली आदि भाषाओं का संमिश्रण है। डॉ. हज़ारिप्रसाद द्विवेदी के अनुसार “भाषा के तो
वे डिक्टेटर थे” - जिस शब्द को वे जिस रूप से कहना चाहते, उसे सीधे या उल्टे रूप से
उसी प्रकार कहते। भाषा की शक्ति नहीं थी कुंठित हो जाती थी। उसमें इतनी शक्ति नहीं
थी की वह इस लापरवाह कवि की आज्ञा नहीं मा रफ नें। फिर व्यंग्य करने और चुटकी लेने
में तो कबीर अद्वितीय थे।”
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